आज हम बात कर रहे हैं उस पापड़ की जिसने पूरे भारत मे धूम मचा दी थी। इसका नाम हैं लिज्जत पापड़। एक ज़माने मे 6 ओरतों ने मिल कर घर से शुरू किया था लिज्जत पापड़ का यह काम। 1959 मे मुंबई मे रहने वाली जसवंती बेन ने आपने परिवार की आमदनी को बढ़ाने के लिए यह काम शुरू किया था। उनके साथ 6 और महिलाए भी थी। यह महिलाए पढ़ी लिखी नहीं थी।
घर जा सब काम करने के बाद उनके पास काफ़ी समय बच जाता था जिसमे वह कुछ करना चाहती थी। सभी महिलाए गुजरती परिवार से थी जिस वजह से उन्हें पापड़ और अन्य कई तरह की चीजे बनाने मे महारथ हासिल थी। जसवंती पोपटदास जी ने निश्चय किया की वह अब यही काम करेंगी। उनके साथ 6 औरते और भी यह काम करने के लिए तैयार हो गई। अब समस्या थी तो यह की पैसे कहा से जुटाए जाए।
सामाजिक कार्यकर्ता छगन लाल को इन महिलाओ के व्यवसाय से ज़ादा इनके हौसलों को देख कर बहुत ख़ुशी हुई। इन महिलाओ को उन्होंने 80 रुपए उधर दे दिये। कुछ ही घंटो मे इतने पापड़ तैयार हो गए की चार पैकेट बनाए जा सके। यह पहला प्रयोग था इसलिए केवल 4 पैकेट जितना पापड़ तैयार होने पर ही काम रोक दिया गया। इन सब पापड़ो को एक जाने माने व्यापारी भुलेश्वर दत्त को बेच दिया गया। कुछ ही समय मे पापड़ के पैकेट की संख्या 4 से बढ़कर हज़ारो तक पहुँच गई।
कुछ महीनों की मेहनत के बाद उन्होंने 80 रूपए का उधार भी चुका दिया था। इसके बाद प्रॉफ़िट होने वाले पेसो से उन्होंने ने और भी सामान खरीद लिए। 3 महीनों के बाद ही इन 7 सहेलियों के छोटे से समूह ने एक कॉपरेटिव सिस्टम का रुप लें लिया। जिसमे और जरुरत मंद महिलाए तथ्य कॉलेज की लड़किया भी जुड़ती गई। उसी साल 6790 रुपए की कमाई हुई। बहुत सी महिलाए इस कॉर्पोरेशन के साथ जुड़ती गई। जिससे संख्या 150 से हज़ार तक पहुंच गई। व्यापार इतना बढ़ गया था की एक छत भी कम पड़ गया था।
1962 मे महिलाओ की इन पापड़ कॉर्पोरेशन ने पापड़ का नाम करण कर दिया नाम रखा गया लिज्जत पापड़। 1963 मे इस लिज्जत पापड़ का कुल टर्नओवर बढ़कर एक लाख से ऊपर पहुँच गया। 1966 मे कंपनी को रजिस्टर किया गया। साल 2002 तक लिज्जत का टर्नओवर 2 करोड़ो तक पहुँच गया। 2005 मे देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम ने इस संस्थान को पुरस्कार से सम्मानित किया गया।