जाएंगे भारत समेत कई देशों के हिंदू, पाकिस्तान मे आए खैबर पख्तूनख्वा मंदिर के दर्शन करने ; जानें क्या है इतिहास

इस सप्ताह मे भारत समेत कई देशों से हिंदू श्रद्धालु पाकिस्तान के खेबर प्रांत के करक जिले मे स्थित ऐतिहासिक मंदिर के दर्शन करने जाने वाले हे। अमरीका, संयुक्त अरब अमीरात और भारत से लगभग 250 श्रद्धालु पहुचेगे। इन सब मे से भारत से 160 यात्रियों का जत्था रवाना होने वाला हे। इस ऐतिहासिक मंदिर पर कट्टरवादियों ने हमला कर दिया था और उसके बाद मंदिर को नुकसान पहुचा था। इसके बाद इस मंदिर का पूर्ण निर्माण हुआ। यह मंदिर परमहंस जी महाराज की समाधि के लिए भी विख्यात हे।

 

साल 1846 मे स्वामी परमहंस जी महाराज का जन्म बिहार के छपरा गाव मे हुआ था। बालपन मे ही परमहंस की मा का निधन हो गया था। उनके पिता तुलसीराम पाठक पुरोहित थे और उनके एक यजमान लाल नरहरि प्रसाद अपने बेटे को खो छु के थे। ऐसे मे उन्होंने मा के प्यार से वंचित हुए यादराम की परवरिश लेने का जिम्मा लिया। स्वामी वास्तविक नाम यादराम ही था। मा को खोने के बाद कायस्थ परिवार मे पले-बढ़े। 11 साल की आयु मे ही अपने पिता को भी खो दिया।

 

रामयाद बचपन से ही अध्यात्मक और सत्संगों मे रुचि रखते थे। इसी दोरान वे एक सत्संग मे वाराणसी के संत परमहंस श्री स्वामी जी के पास छपरा पहुचे थे। इसी दोरान वह नरहरि प्रसाद के घर पहुचे और उन्होंने रामयाद को दीक्षा दी। इसी दोरान 11 साल की आयु मे यादराम ने पिता नरहरि प्रसाद को खो दिया। इसके बाद उनके पास सिर्फ मा का ही सहारा था। जब वह अध्यात्म मे लीन रहने लगे और धीरे-धीरे सन्यासी बन गए । उन्हे उनके गुरु परमहंस जी ने ही सन्यास दिलाया और उनका नाम अद्रेतानंद हो गया। इन सब के बीचमे वह महाराज के नाम से लोकप्रिय हुए थे।

परमहंस जी अखसर लंगोटी पहनते थे। भले ही वह बिहार मे जन्मे, लेकिन एक दोर मे उनके अनुयायी उतर भर के तमाम राज्यों मे थे। उनका निधन 1919 को तेरी गाव मे हुआ था। अही उनकी समाधि भी हे। आज भी देश के विभाजन होने के बावजूद भारत समेत कई देशों से लोग मंदिर के साथ ही स्वामी परमहंस की समाधि पर मत्था टेकने जाते हे।

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